"अभिषेक, तेरी चिट्ठी आई है|"
चिट्ठी - जितना संगीतमय अर्थ, उतना ही मधुर शब्द! जैसे किसी ने सितार की धुन सुना दी हो। अब घड़ियाँ कुछ देर रुकेंगी, और चिट्ठी पढ़ी जाने के बाद चलेंगी। कम से कम मैं तो ऐसा ही करूँगा। घड़ियों को जाना है तो जाएँ।
काराकोरम हॉस्टल की वो सीढियाँ उतरने में भी इतना आनंद! एक-एक कदम में चार-चार सीढियाँ - जैसे पैरों में पर लग गए हों। आज की बात ही कुछ और है! आज मौसम अच्छा है। आज मेरी चिट्ठी आई है। किसी को मेरी याद आई है।
यादें भी अजीब होती हैं। उनमें न तो वास्तविक जितनी वास्तविकता होती है और न ही काल्पनिक जितनी काल्पनिकता। दोनो मिली-जुली होती हैं। यादें ऐसे सपने की तरह होती हैं जिन्हें हम थोड़ा-थोड़ा तब तक देखते हैं जब तक हमारी आंखें पूरी तरह बंद न हो जाये| फिर ऐसे सपने को सपना कहना कितना सही है? और जो सपना नही हो, उसे भुलाने की बात करना कितना तर्कसंगत है?
पहली रोटी के तीन टुकड़े, बाद में आई दूसरी रोटी के फिर से तीन टुकड़े, और अंत में तीसरी रोटी के भी तीन टुकड़े । अगर वही तीन रोटियाँ एक साथ आ जाती तो हमारे पास आपस में बाँटने को क्या बचता ? थोड़ी सी कमी थी तो हम कितने पास आये, और आज भी कितना भरोसा है उस तस्वीर में ! क्या इस चिट्ठी में उसी तस्वीर के रंग बिखरे होंगे ?
पीतल की छोटी सी थाली पर रखा तुलसी का एक पत्ता और गुड़ या मिस्री का एक टुकड़ा -- मंगलवार के व्रत का मीठा-मीठा स्वाद । आरती की गर्म हथेलियों का चेहरे पर सुगंधित घर्षण । क्या ये चिट्ठी वही जीवनदायिनी स्पर्श लेकर आई है ?
या उजले बालों वाला वो समय जो घर आने पर अपने हाथों से पाँव पखारता था । और जाती हुई बेटी के आँचल में मुट्ठी भर अक्षत प्यार से रख देता था । कहाँ मिलेगी वह शीतल छाया इन वृक्षों के गिरने के बाद ? हो सकता है कि चिट्ठी खोलने पर उस जाते हुए समय की गूँज सुनाई दे।
चिट्ठियों के ढेर में एक वो अपनी वाली - जैसे अनजानी भीड़ में जानी-पहचानी सूरत। लिखावट भी चेहरे की तरह ही तो होती है - सबसे अलग, बस अपने जैसी। तभी तो लिखावट देखते ही लिखने वाले का चेहरा दिखाई देता है।
वो भी क्या दिन हुआ करते थे जब लोग चिट्ठियाँ लिखा करते थे। कागज़-कलम लेकर किसी के बारे में देर तक सोचना और फिर लिखना। सोचना तो ऐसे सोचना कि उसकी सुगंध मन में फूट पड़े। और फिर लिख-लिखकर फिर से लिखना। और पढ़ने वाले को भी एक रंग, एक स्पर्श, और एक गूँज का आभास। किसी का अंतरंग होने की सुखद अनुभूति।
बचपन में मैंने कुछ पत्र-मित्र बनाए थे। या बनाने की कल्पना की थी, कुछ ठीक से याद नही। लेकिन दो अपरिचित लोगों में ऐसा मधुर संबंध! क्या आज के युग में यह संभव है? लोग बड़ी तेजी से जा रहे हैं। न जाने कहाँ जा रहे हैं। ऐसे लोग पत्र-मित्र नही बना सकते, न ही बन सकते हैं। बहुत हो गया तो e-mail से एक forward भेज देंगे। उससे ज्यादा आत्मीयता... चलिए उनकी बातें नही करते।
बात चिट्ठियों की शुरू हुयी थी तो बात कोमलता पर ख़त्म की जानी चाहिए, 'कशिश' पर ख़त्म की जानी चाहिए, और "सरस्वतीचंद्र" के इस गीत के साथ ख़त्म की जानी चाहिए।
फूल तुम्हे भेजा है ख़त में, फूल नही मेरा दिल है
प्रियतम मेरे मुझको लिखना, क्या ये तुम्हारे काबिल है।
प्यार छुपा है ख़त में इतना, जितने सागर में मोती
चूम ही लेता हाथ तुम्हारा, पास जो तुम मेरे होती।
6 comments:
yaar, hindi mein khayalat padhkar jyada aatmiyata mahsoos karta hoon.
- teary eyed moron has muscular spasms in his spine...
It has a very lyrical feel to it.
Nice!
No comments on choice of language for this particular post?
U write as good or probably better in hindi.
Also the emotions conveyed in this piece of prose wouldn't have made sense in english.
precisely. :)
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